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राग समय सिद्धांत: भारतीय शास्त्रीय संगीत में समय का महत्व

भारतीय शास्त्रीय संगीत केवल स्वर या लय की साधना नहीं, बल्कि प्रकृति और चेतना के समन्वय का विज्ञान है। राग समय सिद्धांत भी इसी के अंतर्गत आता है , जो संगीत को समय के साथ जोड़ने वाला सबसे अद्भुत और वैज्ञानिक पहलू है।

भारतीय संगीतशास्त्र में यह माना गया है कि प्रत्येक समय का अपना एक भावात्मक वातावरण होता है जैसे प्रातःकाल की पवित्रता, दोपहर की ऊर्जा, संध्या की शांति या रात्रि की गंभीरता। इन सभी अवस्थाओं में प्रकृति के साथ-साथ मानव मन का स्वरूप भी परिवर्तित होता है। राग उसी भाव को अभिव्यक्त करता है, जो उस समय के अनुकूल होता है।

उदाहरणस्वरूप, राग भैरव की गंभीरता और भक्तिभाव प्रातःकाल के सूक्ष्म वातावरण के अनुकूल है, वहीं राग यमन की कोमलता संध्या के क्षणों की गहराई से मेल खाती है। राग दरबारी कनाडा रात्रि की गूढ़ता और शांति को व्यक्त करता है, तो राग मल्हार वर्षा की तरलता और उल्लास को जीवंत कर देता है।

यह समय निर्धारण केवल परंपरा नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी सार्थक है। प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है —

“समयानुरूपं गायेत् रागं तस्य फलप्रदम्।”
अर्थात् — “जो राग उचित समय पर गाया जाता है, वही अपने पूर्ण प्रभाव को देता है।”

अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मंडल की शिक्षण प्रणाली में यह सिद्धांत केवल अध्ययन का विषय नहीं, बल्कि साधना का अंग है। विद्यार्थियों को यह समझाया जाता है कि संगीत का अनुभव तभी पूर्ण होता है जब साधक, राग और समय — तीनों एक सामंजस्य में हों।

आधुनिक समय में, मंचीय कार्यक्रमों और डिजिटल माध्यमों के कारण प्रस्तुति के समय में लचीलापन आया है। परंतु यह सिद्धांत आज भी हमें स्मरण कराता है कि संगीत तभी प्रभावी बनता है जब वह समय, मन और भाव की एकरूपता में गूँजे।

राग समय सिद्धांत हमें यह सिखाता है कि संगीत केवल सुनने की वस्तु नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक लयबद्ध चेतना है।

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